शिक्षा

कला दीर्घा अंतरराष्ट्रीय दृश्य कला पत्रिका, लखनऊ एवं द सेंट्रम, लखनऊ का सहआयोजन

ब्यूरो चीफ आर एल पांडेय

लखनऊ। गुरु और शिष्य-
गुरु और शिष्य का रिश्ता स्नेह और समर्पण का सबसे आदर्श उदाहरण है। गुरु-शिष्य परंपरा में शिष्य हमेशा गुरु की इच्छाओं को पढ़ता और उसे आदेश मानकर अंगीकार कर लेता है। गुरु अपनी परिकल्पना को शिष्य में मूर्तमान होते देखना चाहता और अपने जीवन की संभावित ऊँचाइयों पर अपने से भी ऊपर शिष्य को पाकर प्रसन्नता का अनुभव करता है। यही गुरु की वास्तविक गुरुदक्षिणा और यही शिष्य का गुरुऋण से उऋण होना है। इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब गुरु ने योग्य शिष्य गढ़ कर न सिर्फ राष्ट्र की रक्षा की है, बल्कि मानवता को भी संरक्षण दिया है।

शिक्षक दिवस
यह अवसर शिक्षक दिवस का उत्सव मनाने का है। भारतवर्ष में डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जयंती को शिक्षक दिवस के रूप में मनाते हैं। हम सब जानते हैं कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी के पूर्व कुलपति आचार्य राधाकृष्णन देश के दूसरे राष्ट्रपति थे। उन्होंने मूल्यपरक शिक्षा को तो नए-नए आयाम देकर पुष्ट किया ही, देश के चहुँआयामी विकास में भी उनका योगदान कृतज्ञ राष्ट्र के लिए अविस्मरणीय रहा है। गुरु-शिष्य परंपरा में 5 सितम्बर की यह पवित्र तारीख अतीत के उन समस्त आदर्शों का स्मरण और प्रेरणा है जिसे शिक्षक-दिवस के उत्सव स्वरूप मनाते हुए हम सब गौरवान्वित हो रहे हैं।

शिक्षा में कला का महत्त्व
शिक्षा में कलाओं की महती भूमिका है। जैसा कि संस्कृत के एक श्लोक में कहा भी गया है कि संगीत और कलाविहीन मनुष्य पृथ्वी पर पशुवत बना रहता है-
साहित्य-संगीत कलाविहीनः
साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः।
तृणं न खादन्नपि जीवमानः
तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ।।
इस का अर्थ है - साहित्य, संगीत और कला से विहीन मनुष्य साक्षात् पूँछ और सींग रहित पशु के समान है। और यह पशुओं का भाग्य है कि वो उनकी तरह घास नहीं खाता।
हम सामान्य प्रशिक्षण के अतिरिक्त भी जीवन की बहुत सारी परियोजनाओं और रोजमर्रा के दायित्वों में कलाओं को समावेशित करते हुए उन्हें और भी सरल एवं रुचिकर बना सकते हैं, जिससे मन-मस्तिष्क को सुकून मिलने के साथ ही व्यक्ति की कार्यक्षमता बढ़ जाती है। वहीं परिणाम भी अप्रत्याशित ढंग से रुचिकर और उच्चगुणवत्तापूर्ण हो जाते हैं।

स्थानीय संवेदनाएं और कला
किसी भी भूभाग या अंचल की संस्कृति अपने को कला रूप में ही अभिव्यक्त करती है। कला अपने मूल विषय और विधा के रूप में भी, संस्कृति का अनुस्यूत हिस्सा रही है। इस देश में स्थानीय स्तर पर लोककलाएँ अपने अनेक नए रूप-रंगों के साथ विकसित होती हुई, आंचलिक संवेदनाओं से सिक्त हो समकालीन कला-प्रवृत्तियों और प्रयोगों के माध्यम से विभिन्न स्वरूपों में कलाप्रेमियों को अपने रस-रंग से भिगोती, उपस्थित रही हैं।

कलाओं की रचना एवं प्रदर्शन
कलाओं का रचा जाना और प्रदर्शन के माध्यम से कलाप्रेमियों के बीच उपस्थित होना भी एक प्रक्रिया है, जो समाज और कलाप्रेमियों के संरक्षण के बिना सम्भव नहीं है। इसके बगैर कलाएँ दीर्घजीवी नहीं रह सकतीं और संरक्षण के साथ-साथ प्रोत्साहन और प्रदर्शन का अवसर कलाकारों को सक्षम और सृजनशील भी बनाता है।

कलाओं का संरक्षण एवं संवर्धन: कला दीर्घा की भूमिका
प्रदर्शन के माध्यम से ही कलाएँ अपने चाहने वालों से जुड़ पाती हैं और कलाकार की कार्यशाला से निकलकर कद्रदान के संग्रह और संरक्षण में पहुँच पाती हैं। कलाग्राही और समाज के सक्षम लोग अपनी-अपनी तरह से कलाओं को सदैव संवर्धन देते रहे हैं। लोकाश्रयी कलाओं का स्वतंत्र और मौलिक रूप में विकास होता है। उसका उद्देश्य भी लोक-संवेदना और आम जन-जीवन की अभिव्यक्ति होता है। इन कलाओं का साहचर्य जितना मनुष्यता के लिए आवश्यक है उतना ही संस्कृति की स्थापना के लिए इनका दस्तावेजीकरण भी।
"कलादीर्घा" भारतीय कलाओं के विविध स्वरूपों का दस्तावेजीकरण और उसके प्रसार के उद्देश्य से सन 2000 में स्थापित, दृश्य कलाओं की अन्तर्देशीय कला पत्रिका है, जो अपनी उत्कृष्ट कला-सामग्री और सुरुचिपूर्ण-कलेवर के कारण सम्पूर्ण कलाजगत में महत्त्वपूर्ण पत्रिका के रूप में दर्ज की गई है। अपने स्थापनावर्ष से लेकर अबतक पत्रिका ने लखनऊ, पटना, भोपाल, जयपुर, बंगलोर, नई दिल्ली, लंदन, बर्मिंघम, दुबई, मस्कट आदि महानगरों में अनेक कला-गतिविधियों का उल्लेखनीय आयोजन किया है। आज भी ‘कला दीर्घा’ की कला-गतिविधियाँ उसी उत्साह से अपनी सक्रिय भागीदारी का निर्वहन कर रही हैं। समय-समय पर यह वरिष्ठ कलाकारों के कलाअवदान का सम्मान करते हुए युवा कलाकारों को अपनी अभिव्यक्ति और नित नए प्रयोगों को कलाप्रेमियों के समक्ष प्रदर्शित करने का अवसर प्रदान कर रही है। हाल में ही आयोजित कला प्रदर्शनी ‘हौसला’ और ‘वत्सल’ के उपरान्त आज फिर ‘समर्पण’ प्रदर्शनी के साथ उपस्थित है।

समर्पण प्रदर्शनी
शिष्य अपने गुरु के प्रति सदैव कृतज्ञ भाव प्रकट करने का प्रयास करता है पर शिक्षक दिवस इसके लिए विशेष अवसर होता है। इस अवसर पर रचनात्मक के साथ एक विशेष प्रस्तुतीकरण के उद्देश्य से कला दीर्घा अंतरराष्ट्रीय दृश्य कला पत्रिका ने समर्पण प्रदर्शनी का आयोजन किया है, जिसमें 20 स्थापित एवं युवा कलाकार सम्मिलित हैं। इस प्रदर्शनी में तैल रंग, एक्रिलिक रंग एवं कोलाज माध्यमों का प्रयोग है जिसमें सामाजिक, राजनीतिक एवं दैनिक जीवन से संबंधित विभिन्न विषयों को अपनी अपनी शैलियों में कलाकारों ने चित्रण किया है।

पूर्वावलोकन कार्यक्रम
शिक्षक दिवस की पूर्व संध्या पर द सेंट्रल होटल, लखनऊ में समर्पण कला प्रदर्शनी का शुभारंभ हुआ कार्यक्रम के मुख्य अतिथि श्री अरुण कुमार सिन्हा, सेवानिवृत आईएएस को अंग वस्त्र, प्रदर्शनी पुस्तिका एवं स्मृति चिन्ह देकर स्वागत किया गया। मुख्य अतिथि ने प्रदर्शनी पुस्तिका का विमोचन करते हुए चित्रों का अवलोकन किया और कहा कि दुनिया भर के कला संग्रहालयों को देखने के बाद मैंने महसूस किया है कि भारतीय सांस्कृतिक संवेदनाएं जिस तरह की रचनात्मक ऊर्जा से परिपूर्ण आकर्षण से लबरेज हैं वह अनूठा उदाहरण है। भारतीय युवा कलाकारों में रचनात्मक का स्तर भी सर्वोच्च है। कला दीर्घा के संपादक अवधेश मिश्र ने कहा की कलाएं हमें जीवन देती हैं। हम कलाओं के सहचार्य से मनुष्यता की ओर बढ़ते हैं। हमारा जीवन रंजित और समरस हो जाता है। इसलिए समाज का भी दायित्व है कि कलाओं के संवर्धन और संरक्षण के लिए हर संभव प्रयास करें। कला दीर्घा की प्रकाशक डॉ लीना मिश्र ने कहा कि कला दीर्घा अपने रजत जयंती वर्ष में प्रवेश कर रही है। श्रीमती अंजू सिन्हा के प्रकाशन और अवधेश मिश्र के संपादन में इसके अवदान को संपूर्ण कलाजगत ने रेखांकित किया है। यह हम सबके समर्पण और श्रम की सार्थकता है। हम द सेंट्रम के स्वामी सर्वेश गोयल को धन्यवाद देते हैं जो कला दीर्घा के साथ आगे बढ़ते हुए इस प्रदर्शनी के आयोजन का अवसर प्रदान किया है। प्रदर्शनी के समन्वयक द्वय डॉ अनीता वर्मा एवं सुमित कुमार ने बताया कि यह प्रदर्शनी 10 सितंबर तक प्रतिदिन 11:00 बजे पूर्वाह्न से 7:00 बजे शाम तक चलेगी।